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ग़मों की काली छाया

जो तुमने दास्ताँ अपनी सुनाई आँख भर आई बहुत देखे थे दुःख मैंने मगर क्यूं आँख भर आई ग़मों से दुश्मनी लगती है बिलकुल दोस्ती जैसी खुदा भी जल गया हमसे कि जब ये दोस्ती देखी खराशें दिल में हैं तो फिर मुझे नश्तर से क्या डर है डराना है अगर मुझको तो फिर कुछ और गम देदो सुकूँ मुझको नहीं मिलता है इस बेपाख़ दुनिया में तमन्ना अब तो इतनी है कि फिर से जनम देदो जहाँ खुशियाँ ही खुशियाँ हों और खुशियाँ ही खुशियाँ हों ग़मों की काली छाया से न कोई इल्म मेरा हो

क्षणिकाएं

दीदार हो न जाये उनका मैं डरता हूँ ये सोच के उनकी गली से ना गुजरता हूँ पर क्या करूँ जन्नत है उस गली में ही ये सोच के छुप छुप के मैं गुजरता हूँ

क्षणिकाएं

आज फिर दिल ने उन्हें याद किया मेरी बर्बादियों को और भी बर्बाद किया ग़म जो थे दिल के किसी कोने में दफ्न उनके तोहफों ने फिर उनका आगाज़ किया

क्षणिकाएं

इक दिल तो है पर गम-ए-दर्द कहा से लाऊं लिखने का शौक तो है पर शब्द कहा से लाऊँ कोशिश जो की गम-ए-रुसवाई को लिखने की पर चेहरों को पढने की नज़र कहा से लाऊं

तमाशाबीन तो नहीं

आये दिन हम न्यूज़ पपेर्स में छेड़छाड़ क किस्से पढ़ते रहते हैं शायद हम सभी को शर्मिंदगी होती है और डरते हैं कि कहीं .... मैंने इस बारे में कुछ लोगों से बात की और कुछ पंक्तियाँ तैयार की जो आप से बांटना चाहता हूँ . मत देख ऐसे मैं तमाशा बीन तो नहीं खुबसूरत हूँ पर घूरने की चीज़ तो नहीं घर से निकलते ही डर लगता है पर किस किस से डरूं ये मालूम ही नहीं मिला जो खुदा तो पूंछना ये है कि खूबसूरती सबकी एक सी क्यूँ नहीं जब दिल भी सबका एक सा तो रंग रूप और सोच एक सी क्यों नहीं तालीम दी रोशन किया पर इनको नफ्स पे काबू क्यूँ नहीं पहचान खो न जाये ये सोच के घर से निकलना है सारी बंदिशें तोड़ के आंगे बढ़ना है तू कर या न कर पर इस सोंच को बदलना है कि हम तमाशबीन ही नहीं .

मिट गया वो इस कदर

मिट गया वो इस कदर कि राख में भी ना मिला. था वो साया मौत का जो अश्क फिर से भर गया. ढूँढा उसे हर शाख पर हर कौम में हर चक्षु में पूँछा जो हर एक मोड़ से तो हर जगह बस ये मिला कि मिट गया वो इस कदर कि राख में भी ना मिला. अर्ज़-ए-इबादत खूब की हर कब्र पे हर घाट पे क़ाज़ी मिले पंडे मिले मिलके सभी कहने लगे कि मिट गया वो इस कदर कि राख में भी ना मिला. ना लफ्ज़ थे ना इल्म था जज़्बात थे कुछ इस कदर नज़्मे लिखीं गजलें बनी कुछ पंक्तियाँ ऐसी बनी कि मिट गया वो इस कदर कि राख में भी ना मिला. ख्वाब थे कुछ याद से सिमटे से और बेहाल से फ़रियाद की जब रब से कि कर दे इनायत हमपे भी तो बस यही गूंजा वहां कर ले यकीं ऐ मेरे दिल कि मिट गया वो इस कदर कि राख में भी ना मिला. (kaushal kishor) kanpur

कुछ यूं लिखूं

इक कलम था इक थी दुआ और शब्द थे कुछ पुष्प से बांधा उन्हें फिर सोच कर तो बन गयी आराधना हे हंसवाहिनी अर्पण तुझे इस भक्त की ये साधना करलो इसे स्वीकार और देदो मुझे कुछ ज्ञान अब कि लिख सकूं इस देश पर इस देश की सच्चाई पर बस दे मुझे कुछ ताकतें मेरी कलम और मेरी सोच में लिख दूं नयी इक दास्तान बदले जो हर इक सोच को पढ़ कर जिसे बस सब कहें क़ी अमल कर बस अमल कर मन में तो है कुछ यूं लिखूं इश्वर लिखूं अल्लाह लिखूं गोविन्द लिखूं जीसस लिखूं हर शख्श की पहचान हो तोडूँ सभी ये सरहदें हम एक थे और एक हैं बाटों न अब जज़्बात से जब रूह सबकी एक है जागो सभी उठ कर चलो मिल कर चलो बढ़ते चलो न कोई दुश्मन उठ सके जो सरहदें पैदा करे आओ तो ये सौगंध लें समझेंगे ताकत कलम की फिर मिलके सब ऐसा लिखें कि लब हिलें तो बस कहें कि अमल कर बस अमल कर बस अमल कर बस अमल कर....... (कौशल किशोर) कनपुर

रूहें तो अब भी एक हैं

इश्क में हम भी जो थे और इश्क में वो भी जो थे प्यार कुछ हमको भी था और प्यार कुछ उनको भी था फरमाईशें तो कुछ मेरी भी थीं फरमाईशें तो कुछ उनकी भी थीं छुप छुप के फिर हम भी मिले छुप छुप के फिर वो भी मिले मोहब्बत जो यूं फिर जवां हुई तन्हाईयाँ भी सब मिटने लगीं कस्मे हुईं वादे हुए रुसवाईयों से भी डरने लगे सपने भी फिर देखे गए आखों से जो न बोझिल हुए शाहिद जो कुछ मेरे बने शाहिद जो कुछ उनके बने और फिर क्या था........... टूटे सभी वो ताज महल ख्वाबों में जो हमने चुने इक कब्र फिर मेरी खुदी इक कब्र फिर उनकी खुदी कस्मे दबीं वादे दबे और जिस्म भी दाबे गए रोते हैं फिर तकदीर को कैसे मिलें कैसे मिलें पर अक्ल थी मारी गयी जो जिस्म के भूखे थे हम रूहें तो अब भी एक हैं और बदनामियों से दूर हैं हम भी हैं खुश वो भी हैं खुश और खुशनमाँ माहौल है रूहें तो अब भी एक हैं रूहें तो अब भी एक हैं । (कौशल किशोर) कानपुर

हिना के जैसी सुन्दर थी

वो कितनी प्यारी  प्यारी  थी कुछ खुशबू सौंधी  सौंधी थी कुछ हिना के जैसी सुन्दर थी कुछ गुलशन जैसी महकी थी कुछ समीर सी चंचल थी कुछ माखन सी तासीर भी थी वो कितनी प्यारी प्यारी थी एक दिल था भोला  भाला सा जिसमे कितनी गहराई थी नैना थे बिलकुल हिरनी से दुनिया की जिनमे परछाईं थी सीरत तो बिलकुल ऐसी कि   जैसे खुदा से शोहरत पायी थी वो कितनी प्यारी प्यारी थी. जब मुझे देखती थी वो तब सारी खुशियाँ मिल जाती थी सोंचा इक दिन मैंने कि बस उसकी तस्वीर बना डालूँ पर बन कर जब तैयार हुई तो अपनी ही बेटी पाई थी. अब इतना ही बस कहना है वो कितनी प्यारी प्यारी है. वो सबसे  प्यारी प्यारी है. - कौशल किशोर, कानपुर

तू भी कल प्यार में हो

मत उठा मेरे प्यार पे ऊँगली ऐ शाहिद  मत करा  दूर दो रूंहों को अलग ऐ शाहिद  हम भी अल्लाह के बन्दे हैं कुछ तो डर ऐ शाहिद  कहीं ऐसा न हो कि, तू भी कल प्यार में हो और बन जाऊं मैं शाहिद