अन्जान राह पे चलते चलते थक गये हैं अब कदम हो गयी है इन्तहां दुखने लगे हैं अब जखम करता रहा ज़ो जी हुजूरी और गिरा हर बार हूँ हिम्मत तो देखो इक बार फिर लड़ने को मै तैयार हूँ
चुप हूँ पर मेरी चुप्पी को ख़ामोश न समझो मै तो इशारों से ही तुझे राख़ बना सकता हूँ ख़ुशनसीब है तू जो नाखुदा हमारा एक है कश्ती तो मैं तूफाँ में भी चला सकता हूँ . शुक्र कर ख़ुदा का जो हम साथ हैं इस राह पर तेरे ग़ुरूर को हर राह पे झुका सकता हूँ इंसान है इंसानियत को कुछ तो इज्ज़त दे तेरी हैवानियत को हर लफ्ज़ से मिटा सकता हूँ